जिस आसमां पे कभी उसने चमकने का ख़्वाब देखा था





जिस आसमां पे कभी उसने
चमकने का ख़्वाब देखा था
ज़माने ने उसी आसमां से
गिरकर उसे मरते देखा था

जिंदगी तू क्या क्या मंज़र
दिखायेगा अभी
इंसानियत को हैवानियत से
क्या बचाएगा कभी

नज़रो के सामने कितनो ने
अपनों को बेवजह ही खोया होगा
देखकर उनकी निर्दयता निर्ममता को
काल भी एक पल के लिए तो रोया होगा

मासूमों पर हो रहा जहाँ में कैसा ये कहर
तबाह हो रहा रोज कोई बसा बसाया शहर
पूरी दुनिया देख रही आज  बुत बनकर
बनता जा रहा है रोज एक लाशों का शहर

बिलख रहा है बचपन पग पग पर
सिसक रही है ममता रह रह कर
खिले गुलशन में आज खिज़ा सी हो गई है

कहाँ छुपा बैठा है पासबाँ
क्यूं नहीं अपनी रहमत दिखता
आज क्या उसकी कज़ा भी सो गई है




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