जहां वालों मैं सर-ज़मीन-ए-हिंद हूँ



सियाह अंधेरों में जीवन की
नई उम्मीद भी पैदा करती हूँ

रखकर तूफानों पे अपने कदम
अज़-रह-ए-तम्हीद भी पैदा करती हूँ

जहां वालों मैं सर-ज़मीन-ए-हिंद हूँ 

फ़क़त फसलें ही पैदा नहीं करती
अमर शहीद भी पैदा करती हूँ

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