ग़ज़ालों सी फिरती रहती है


ग़ज़ालों सी फिरती रहती है 
शहर-ए-गुलिश्तां के फ़ज़ाओं में 
बेसाख़्ता वो लड़की मुझे 
कोई हुस्न-ए-अज़ल सी लगती है 

ख़ुदा का कोई सूफ़ी क़लाम 
सादगी में भी हुस्न-ए-ताम 
मेरे चश्म-ए-क़लम को वो
चलती-फिरती ग़ज़ल सी लगती है 

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