जवानी के दहलीज़ पर जब



जवानी के दहलीज़ पर जब 
बालों की  गुलशन झड़ने लगी 
राह चलते मुसाफिर की नज़र 
मेरे उजड़े चमन पर पड़ने लगी 

रौशनी में बंज़र जमीं 
माहताब सा चमकने लगा 
दोपहर के धुप में ये 
आफताब सा दहकने लगा 

जो बचे थे बाल उससे 
खुले मैदान को छुपाने लगे 
नाना किस्म के तेल मिटते 
गुलिस्तान पर लगाने लगे 

बैध जी की गोलिया भी 
करामात कुछ न कर सकी 
सर - जमीं पर बढ़ते शज़र के 
मसाफ़त को न भर सकी 

सारा दिन फ़क़त आईने में 
बिखरते चमन को निहारते हम 
जो बचे थे बाल सर पर 
एहतियातन संवारते हम 

सोचते जाने नज़र किसकी 
गुलशन को मेरे लग गई 
तादाद सर के बालों की जिससे 
आधे से ज्यादा लगभग गई 

रफ्ता रफ्ता दिल ही दिल 
शादी का डर भी सताने लगा  
रिश्ते जो भी आते मेरे 
उम्र ज्यादा ही बताने लगा 


INCOMPLETE

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