वक़्त का इक ज़रा सा लम्हा हूँ मैं













वक़्त का इक ज़रा सा लम्हा हूँ मैं
जीवन के अनंत पथ से धीरे धीरे
गुजरता ही जा रहा हूँ

मैं युगों – युगों से निरंतर
चलता ही आ रहा हूँ
बिना रुके बिना थके
समय के हर काल खंड से
निकलता ही जा रहा हूँ

मैंने देखे हैं हज़ारों मंज़र
मानव के इतिहास की
सभ्यता के विकास की
अधर्म के विनाश की

मैं समय के डोर से बंधा
अनादि से अनंत की ओर
बढ़ता ही जा रहा हूँ

मैं ना किसी का दोस्त हूँ
ना ही किसी से मेरी दुश्मनी

मैं एक साथ किसी के ख़ुशी में
हँसता हूँ तो किसी के गम में
रो जाता हूँ

मैं दोस्ती और दुश्मनी से परे
किसी के लिए कभी अच्छा
तो कभी बुरा हो जाता हूँ

मुझमें खुशियाँ हैं तो मुझमें गम भी हैं
मुझमें दर्द हैं तो मुझमें मरहम भी हैं

छुपे है मुझमें अनगिनत रहस्य
अनेको मंज़र अनेकों बातें
लौकिक दृष्टि से जिसे कोई
देख भी नहीं सकता

मैं समय के चक्र से बंधा
समय का ही गुलाम हूँ
बिधाता के सिवा दूसरा कोई
मुझे रोक भी नहीं सकता

सृस्टि के आरंभ से
ब्रम्हांड के हर छोर पर
बिधाता के आदेश पर
तटस्थ, मैं अपना कर्त्तव्य
करता ही जा रहा हूँ

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