बारूदों के ढेर पर अम्न के गुलशन कभी खिल नहीं सकते





















अम्न की बाते फ़क़त
किताबों में दफ़्न है
तबाह हो रहा हर रोज
वो बसा बसाया शहर

जंग और जिद वहां 
बर-पा है कुछ इस क़दर
हज़ारो जिन्दगिया एक
पल में हो गई है बेघर

पूरी दुनिया देख रही बस
बूत बनकर
रफ़्ता- रफ़्ता बन रहा है
वो एक लाशो का शहर

इश्क़ और जंग में सबकुछ
जायज़ नहीं होता
सिरफिरी सी बातें है ये, पर
दिख रहा है इनका गहरा असर

बारूदों के ढेर पर अम्न के
गुलशन कभी खिल नहीं सकते
ग़र खिल भी गए तो सदियों तलक
गुलों में महकेंगी फ़क़त नफरतों का ज़हर

                                                                                                                                  

बर-पा - (उत्पात या उपद्रव) जो उठ खड़ा हुआ हो
रफ़्ता- रफ़्ता - धीरे - धीरे
फ़क़त - सिर्फ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Anything to comment regarding the article or suggestion for its improvement , please write to me.