यूँ ही शक्ल-ओ-सूरत से हम बीमार लगते है



यूँ ही शक्ल-ओ-सूरत से हम
बीमार लगते है
तुम ये न समझना कि तुम बिन
बेज़ार लगते है

अश्कों से अपने दिल का
बहुत याराना है
और ग़मों से वास्ता अपना
बहुत पुराना है

तुम्हारे हिज़्र के दिन.......

अरे... तुम्हारे हिज़्र के दिन तो
मुझे बहार लगते है

तुम्हारे बाद निंदो से
भी दुश्मनी सी हो गई 
भूख प्यास ख़ुशी सुकून 
सबसे कहा - सुनी सी हो गई 

अल्फाज़ वो मोहब्बत के 
सब जाने कहाँ खो गए 
क़ाफ़िया- बहर गीत- ग़ज़ल
सब गहरी नींदों में सो गए 

 हमदर्द है कुछ नग्मे मुकेश के
जो मुझे रोने नहीं देती 
वो गीत कि सुहानी चांदनी राते
हमे  सोने नहीं देती 

पर तुम ये न समझो की 
दिल में  कोई दर्द है 

अरे....   दर्द भरे नग्मे तो दिल को  
सदाबहार लगते है 
 

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