यारों बचपन के दिन कितने अच्छे थे
न जाती- धर्म की दीवार थी कोई
न अमीरी- गरीबी की दरार थी कोई
उस कुम्हार के बनाये सारे घड़े कच्चे थे
यारों बचपन के दिन कितने अच्छे थे
बातों-बातों में अकड़ते थे
खूब लड़ते थे झगड़ते थे
फिर भूल के सारे गिले शिकवे
कम्बख़्त एक दूजे से गले मिला करते थे
चेहरों पे कोई नक़ाब न थी
मलिन दिल की किताब न थी
जो दिल में थी वो जुबां पर थी
हर सम्त गुलों सा खिला करते थे
सारे दोस्त कितने भोले थे कितने सच्चे थे
फिर भूल के सारे गिले शिकवे
कम्बख़्त एक दूजे से गले मिला करते थे
चेहरों पे कोई नक़ाब न थी
मलिन दिल की किताब न थी
जो दिल में थी वो जुबां पर थी
हर सम्त गुलों सा खिला करते थे
सारे दोस्त कितने भोले थे कितने सच्चे थे
यारों बचपन के दिन कितने अच्छे थे
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