अहल-ए-दिल से मेरी आवाज
गुजर जाने दो
घुल के हवाओं में इसे
दूर तर जाने दो
चंद मोहलत है मिली ग़ुल को
मुस्कुराने के लिए
इसकी खुशबू फ़ज़ाओं में
बिखर जाने दो
मर्ज़-ए-ला-दवा है ये
मरीज़-ए-'इश्क़ की शिफ़ा
फ़क़त निगाह-ए-यार में है
तुम तो रहने दो मुझे
चारा-गर जाने दो
आफ़ताब ए दोपहर में
एक थका मुसाफ़िर हूँ
कुछ देर ही सही
शज़र अपनी छांव में
ठहर जाने दो
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