सदियों का रिश्ता है कुर्सी का हम इंसानों से


सदियों का रिश्ता है
कुर्सी का हम इंसानों से
कटता है जब जंगल, कुर्सियां
बरसती है आसमानों से

कुर्सी में अकड़ है
कुर्सी में पकड़ है
चिपक जाती है बदन से
जाने कौन सी जकड़ है

कुर्सी का तो मानो जैसे
खेल ही निराला है
नहीं जान पाता है किस्मत
खुद कुर्सी को बनाने वाला है

यूँ तो तमाम फर्नीचर ही
बनती है उस लकड़ी से
ताकत जितनी कुर्सी में है
दूसरों में कहाँ होती है

दूसरे फर्नीचर तो आराम
कर भी लेते है यदा कदा
मगर भाग दौड़ के जिंदगी में
ये कुर्सियां कहाँ सोती है

कुर्सियां डराती है
कमजोर और गरीबों को
ये साथ में बिठाती है
बलवान और अमीरों को

दर्शन देती है कुर्सियां
हमेशा नए नए ठिकानों में 
उड़ते रहती है कुर्सियां
हमेशा बैठकर बिमानों में

ग़ुम हो जाती है कुछ कुर्सियां 
जाने कैसे कहीं ख़ज़ानों में 
कुर्सियां मिलने भी जाती है मगर
वक़्त आने पर गरीब खानों में

सदियां गुजर गई मगर कुर्सी का
इंसा आज भी वैसा ही दीवाना है
इसीलिए तो कहता हूँ कुर्सी का
हम इंसानो से रिश्ता बहुत पुराना है

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