शम्'अ के लौ में तुझे

 

शम्'अ  के  लौ में  तुझे 
 शब-ओ-रोज़ जलना  होगा  
वादी  ए ग़ुल तो  कभी 
सहरा  में  भी  चलना  होगा 

वस्ल के  पल  तो 
ओझल हो जायेंगे  
परिंदे  की  तरह 
हिज़्र  के  शब्  में  
उसके  यादों  से 
बहलना  होगा 

मिटाकर हस्ती 
अपनी  आखिर 
रफ्ता  रफ्ता , 
वफ़ा के सांचे में 
 ढलना  होगा 

ख़ुदाई शय है इश्क़ 
पाने की तमन्ना में इसे 
बदन के सरहदों के 
पार निकलना होगा 

मंज़िल  ए  इश्क़  के 
मुसाफिर  तुझे 
सफ़र में इश्क़ के 
 क़तरा - क़तरा, 
सिराज सा कोई 
दिन -  रात  
पिघलना  होगा  

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