मोम की मानिंद जिंदगी भी धीरे धीरे पिघल सी रही है

 




मोम की मानिंद जिंदगी भी

धीरे धीरे पिघल सी रही है

 

जीव तो गिरफ्त में बस

दीखता फूल फल रहा है

अज़गर की तरह मौत इसे

पल पल निगल सी रही है

 

आत्मा तो अमर है उसे

मौत का कोई डर कैसा

वो तो रंग बिरंगे नए - नए

कपड़े बदल सी रही है

 

बिधाता के हर रहस्य को

बस बिधाता ही जानते 

ज्ञानी भी मौन है मगर बिज्ञान

जानने को रहस्य मचल सी रही है

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