मोहब्बत गुल ही नहीं खार भी है



मोहब्बत गुल ही नहीं ख़ार भी है
कि इसमें इकरार ही नहीं इंकार भी है

छूकर दिल से इसे महसूस करों
फ़क़त गुलज़ार ही नहीं तेज़ अंगार भी है

यूँ तो दिल का रिश्ता है ये 
मगर इसमें जां निशार भी है 
कि दिल इसमें बे क़रार ही नहीं
बेरहम सितमगार भी है

ख़ुदा मोहब्बत का कोई
दूसरा  नहीं होता 
मोहब्बत खुद ब खुद में
एक परवरदिगार भी है 

मोहब्बत के राहों में कोई 
शिकार- बाज़ी चाहे कर ले 
राह-ए- मोहब्बत में खुद ही 
वो एक शिकार भी है 

दरिया-ये -वफ़ा में यूँ तो हरदम
ही रहता तेज़ धार भी है 
डूबनेवाला दिल ही इसमें मगर 
अक्सर होता पार भी है 




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