ए'तिराफ़-ए-'इश्क़ : मुझे तू जो भी चाहे सजा दे देना

मुझे तू जो भी चाहे सजा दे देना
खुद से न कभी जुदा होने देना

तुझसे ही रौशनी है
मेरे मकां में ए दोस्त

इस चराग़ को यूँ ही
जलने देना ,किसी बात पर
न बुझा देना

एक फूल जो खिली है
चाहत के सालों बाद
 इसे खिलने देना
किसी बात पर न
मिटा देना

कश्ती बनकर तेरे लहरों में
बहता रहता हूँ
किसी महफ़िल में रहूं
हरपल तेरे ही दिल में रहता हूँ

कश्ती को किनारा भले न देना
किसी बात पर मजधार में
न डुबो देना

मेरी गुजारिश है इसे
साजिश न तू समझ लेना
तेरा ही अक्स हूँ मैं कोई
गैर शख्स न तू समझ लेना

मोहब्बत मेरी चाहे दिल में
न रखना नफरत की कोई
सुई दिल में न चुभो लेना

तुझसे मिलने के बाद
जिंदगी कुछ बदल सी गई है

ये असर तेरे प्यार का है या
फितूर का है, जो भी है
कम से कम गाडी
संभल 
सी गई है

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