आदमी सा फ़क़त दिखता हूँ



आदमी सा फ़क़त दिखता हूँ
मगर आदमियत आई नहीं

ख़ुदाओं में उलझा रहता हूँ
पर इंसानियत आई नहीं 

करके बेघर तमाम जानवरों को
मैंने अनगिनत शहर बसाये है
काट कर दरख्तों - जंगलो को
कंक्रीट के महानगर बनाये है

बिनाश को ही बिकास समझता रहा 
बशर ! क़ाबिलियत आई नहीं

ख़ुदा ने हसीं जमीं दी है मुझे रहने के लिए
पर पहाड़ो - समन्दरों के लिए झगड़ता हूँ मैं
जानवरों  को तो कब का गुलाम बना चूका
अब खुद जानवरों  की तरह लड़ता हूँ मैं

धड़कता तो मेरे सीने में भी है 
ता-ब-जिगर मासूमियत आई नहीं 

मुझमे जंग और ज़िद दोनों ही भरपूर है
ख़ुदा के वसूल तो ख्यालों  में भी दूर है

चाँद तारों तक जाने की अभी ख़्वाहिशें है मेरी
आसमानों  को कब्ज़ाने की सभी साजिशें है मेरी

मैं रोज अपने स्वार्थ में अब नई- नई वसूले बनाता हूँ
ख़ुदा के बनाई दुनिया का अब मैं ही भाग्य - बिधाता हूँ

सदियों पहले ख़ुदा ने इंसान मुझे बनाया था 
मुंतज़र अबतलक  इंसा की  सिफ़त आई नहीं 




 








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