मैं निर्भया , भारत की बेटी
थी अपने पापा की मैं एक परी
और नाम तो मेरा कुछ और ही था
देखे मैंने भी कई सपने थे,
दिल में मेरे भी कई अरमां थे
नई आसमां को भी छू लेने की
मैं जिस्म नहीं एक रूह भी थी
बचपन से पली थी लाडों में
अपने मम्मी - पापा की मैं
लाड़ली अकेली थी
अपने जिंदगी की तमाम
जरूरतों से लड़ती निर्भय
उस रात भी हमेशा की तरह
मैं घर आ रही अकेली थी
उन बहशी निगाहों ने जाने
कब कहाँ किस मोड़ से
मेरा पीछा किया था
मेरे तमाम बिनती - प्रतिरोध के
बाबजूद उन बेरहम हाथों ने
मेरे बदन को छुआ था
फिर इंसानियत को भी शर्मसार कर के
दरिंदगी की सारी हदें भी पार कर के
मेरी पवित्रता को तार- तार किया था
मैं चीखती - चिल्लाती रही , उस रात
वक़्त ने भी तो मेरा साथ नहीं दिया था
मेरी लड़खड़ाती साँसों- सिसकियों के साथ
उन दरिंदों ने मुझे जीते जी जिन्दा
एक लाश बना दिया था
क्या उन दरिंदों को उस वक़्त अपनी
माँ-बहन भी याद न आई थी
जब उन्होंने मेरे तन ही नहीं अंतर्मन पर
जब उन्होंने मेरे तन ही नहीं अंतर्मन पर
भी बेरहमी से ज़ख्म बरसाई थी
क्यू उन दरिंदों को बस मेरी
जिस्म ही नज़र आती है
अरे दरिंदगी के बाद तो स्त्री की
रूह तक मर जाती है
आखिर कबतक निर्भया
हैवानियत और दरिंदगी की
यूँ ही शिकार होती रहेगी
फिर अपने न्याय मिलने से पहले ही
हारकर जिंदगी की जंग मौत की
यूँ ही गहरी नींद में सोती रहेगी
मैं निर्भया , भारत की बेटी
थी अपने पापा की मैं एक परी
और नाम तो मेरा कुछ और ही था
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