अजर हूँ ,अमर हूँ ,मैं एक शहर हूँ
इधर हूँ उधर हूँ न जाने किधर हूँ
मैं अपनी सीमाओँ से खुद बेख़बर हूँ
मेरे ही दम पर चलती है अख़बारे
बनती बिगड़ती रहती है सरकारें
न रुकता न थकता हरदम हूँ चलता
मैं जागता-भागता दिन-रात,दोपहर हूँ
कुदरत के नज़ारों से मैं दूर-तर हूँ
कॉन्क्रीट के दीवारों से मैं तर-ब-तर हूँ
खूबसूरत नक़्क़ाशी से भरा रहगुज़र हूँ
आमीरी के दर पर ग़रीबी का बसर हूँ
नहीं राहबर हूँ खुद ही एक सफ़र हूँ
हद से ग़म के परे हूँ, मैं बे-जिगर हूँ
मैं अपने ही सपनों में ग़ुम इस कदर हूँ
कि औरों के दर्द-ओ-ग़म से बे-खबर हूँ
चढ़ रहा यूँ तो हर पल सभ्यता का शिखर हूँ
सह रहा कई निर्भयाओं का ज़ख्म-ए-जिगर हूँ
यूँ तो हर तरफ फ़क़त मैं हुजूम-ए-दहर हूँ
कहीं फिर भी तनहा सा मैं सर-ब-सर हूँ
चमकते सितारों का मैं समंदर हूँ
बिखरते तारों से मगर बे-असर हूँ
बिकास के पथ पर मैं अग्रसर हूँ
गड़ाए हुए नई मंज़िलों पे नज़र हूँ
बढ़ रहा है जो हरपल,मैं वो शज़र हूँ
अजर हूँ अमर हूँ निडर हूँ शहर हूँ
.jpg)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Anything to comment regarding the article or suggestion for its improvement , please write to me.