ये तेरे रहम-ओ-करम पर है ख़ुदा



ये तेरे रहम-ओ-करम
पर है ख़ुदा
इन ख़ताओं को मेरे
तू दर-गुज़र फिर कर न कर

खो रहा है रफ़्ता-रफ़्ता
तेरे जहाँ से अम्न भी
मुल्कों की तक़रारो को
तू  कमतर  फिर कर न कर

ताक मैं बैठे है दुश्मन
ख़ाक ये करने को गुलशन
मज़हबी चिंगारियों को
तू  बे-असर फिर कर न कर

मुफ़्लिसी  को महताब भी
रोटी ही नज़र आती है
सियाह उनके रातों को
तू  सहर फिर कर न कर




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