ग़ज़ल : उन मंज़िलो से गुरेज़ रख जिन्हे रास्तों की क़दर नहीं

उन मंज़िलो से गुरेज़ रख
जिन्हे रास्तों की क़दर नहीं

तू चराग़ बन उन रातों की
जिन रातों के है सहर नहीं

न सराब रख तू निगाहों में
सहरा हो ग़र तेरी राहों में
तनहा कटे ग़र रहगुज़र
सुन बेखबर वो सफ़र नहीं

तू चराग़ बन उन रातों की
जिन रातों के है सहर नहीं

रख हौसला तू उड़ान पर
ग़र तूफां मले आसमान पर
परवाज़ है तू आसमान का
तेरे वास्ते ये शज़र नहीं

तू चराग़ बन उन रातों की
जिन रातों के है सहर नहीं


तेरी सादगी ही अराइश है
किस शय की फिर तुझे ख्वाहिश है
ये महफिले है वो आईने
चेहरे भी आते नज़र नहीं
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सहर :- सवेरा, प्रातःकाल
सराब : मृगतृष्णा, भ्रम, मिराज, मरीचिका
सहरा : मरुस्थल, रेगिस्तान, मरुभूमि
रहगुज़र - रास्ता
परवाज़ - उड़नेवाला
शय : वस्तु , चीज़
शज़र - पेड़, वृक्ष
अराइश - श्रृंगार, आभूषण

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