मुफ़्लिसी तो इस बरसते सावन में

 

बेदर्द हवाएं सर्द इन रातों में
उसे यकसर जगा रही होगी
काली घटाए इन बरसातों में
उसे रह- रह कर डरा रही होगी

अँधेरे जीवन में रौशनी के लिए  
अपने बुझे दिए को जला रही होगी
चूल्हे पर ख़ाली बर्तन को रख
अपने भूखे बच्चे को सुला रही होगी

भूख की चादर तन पर ओढ़े हुए
अपने ख़ुदा को हर दर्द सुना रही होगी
मुफ़्लिसी तो इस बरसते सावन में
घर के टूटे छप्पर बना रहीं होगी


यकसर  -बिलकुल
मुफ़्लिसी - ग़रीबी

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