हर-पल टूटती रहती है कश्तियाँ उसकी

 

हर-पल  टूटती रहती है कश्तियाँ उसकी
बेसबब डूबती रहती है कश्तियाँ उसकी
 
अज़ब  नाख़ुदा है वो इस समंदर का
हर वख़त कश्तिया बनाता रहता है

बनाता है वो मिटटी के खिलौने
और उसमें साँसे भी भरता है
 
लिखता है फिर मुकद्दर उसका
और उसमें एहसासें भी भरता है

की हरपल टूटते रहतें है खिलौने
उस कारीगर के
न जाने कितने सांचों में वो
हर वक़्त मूर्तियां बनाता रहता है

बे-नज़र रहकर भी बा- खबर रहता है वो
तमाम शय पर हर वक़्त नज़र रखता है वो
 
हर एक साँस का भी रखता है वो हिसाब
राह-ए-जिंदगी में बनके राहबर रहता है वो

बनाया है वो गुल गुलशन में
और तितलियाँ भी बनाई है
 
बनाया उसने गर सहरा तो
दरिया भी बनाई है

न जाने और कितनी दुनिया बनाई
उसने है दुनिया में
ख़ुदा, GOD, ईश्वर जो समझो उसे
हर वक़्त जिन्दगिया बनाता रहता है

मुसब्बिर है वही ये पूरी कायनात
फ़क़त तस्वीर है उसकी

कहीं वादियाँ  तो कहीं बिरानिया
कहीं बाद-ए-सबा तो कहीं आँधिया

वक़्त के कैनवास पर हर वक़्त
तस्वीर-ए-जिन्दगिया बनाता रहता है

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