हर तरफ शिफ़ाख़ानों के आगे
मरीज़ों का लम्बा क़तार सा रहता है
बिछड़ कर आब-ओ-हवा से गांव की
अब शहर बीमार सा रहता है
दो रोटी भी सुकूं से बैठकर
कभी नहीं खाता है ये
घंटी बजते है फ़ोन की
निवाला छोड़कर भी
उठ जाता है ये
हर घडी हर वखत
पैसे कमाने का इस पर
कोई जूनून सवार सा रहता है
बिछड़ कर आब-ओ-हवा से गांव की
अब हर शहर बीमार सा रहता है
जाने कब उठता है
जाने कब सोता है
बाहर से हँसता है
मन ही मन रोता है
सब कुछ तो है इसके पास
जाने किस शय की तलाश में
हर पल ये बे-क़रार सा रहता है
बिछड़ कर आब-ओ-हवा से गांव की
अब हर शहर बीमार सा रहता है
अम्न वो मोहब्बत के
फ़ज़ाओं में इसके
नफ़रत के लहर भी बहते है
कि दम - घुटन सी
हवाओं में इसके
हर वक़्त जहर ही रहते है
हर पल दुश्वार सा रहता है
बिछड़ कर आब-ओ-हवा से गांव की
अब शहर बीमार सा रहता है
अब शहर बीमार सा रहता है
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